Lekhika Ranchi

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रंगभूमि--मुंशी प्रेमचंद

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ताहिर-बिरादर, आजकल ज़रा तंग हो गया हूँ, मगर अब जल्द कारखाने का काम शुरू होगा, मेरी भी तरक्की होगी। बस, तुम्हारी एक-एक कौड़ी चुका दूँगा।
जगधर-ना साहब, आज तो मैं रुपये लेकर ही जाऊँगा। महाजन के रुपये न दूँगा, तो आज मुझे छटाँक-भर भी सौदा न मिलेगा। भगवान् जानते हैं, जो मेरे घर में टका भी हो। यह समझिए कि आप मेरा नहीं, अपना दे रहे हैं। आपसे झूठ बोलता होऊँ, तो जवानी काम न आए,रात बाल-बच्चे भूखे ही सो रहे। सारे मुहल्ले में सदा लगाई, किसी ने चार आने पैसे न दिए।
चमारों के चौधरी को जगधर पर दया आ गई। ताहिर अली से बोला-मुंशीजी, मेरा पावना इन्हीं को दे दीजिए, मुझे दो-चार दिन में दीजिएगा।
ताहिर-जगधर, मैं खुदा को गवाह करके कहता हूँ, मेरे पास रुपये नहीं हैं, खुदा के लिए दो-चार दिन ठहर जाओ।
जगधर-मुंसीजी, झूठ बोलना गाय खाना है, महाजन के रुपये आज न पहँचे, तो कहीं का नहीं रहूँगा।
ताहिर अली ने घर में आकर कुल्सूम से कहा-मिठाईवाला सिर पर सवार है, किसी तरह टलता ही नहीं। क्या करूँ, रोकड़ में से दस रुपये निकालकर दे दूँ?
कुल्सूम ने चिढ़कर कहा-जिसके दाम आते हैं, वह सिर पर सवार होगा ही! अम्माँजान से क्यों नहीं माँगते? मेरे बच्चों को तो मिठाई मिली नहीं; जिन्होंने उचक-उचककर खाया-खिलाया है, वे दाम देने की बेर क्यों भीगी बिल्ली बनी बैठी हुई हैं?
ताहिर-इसी मारे तो मैं तुमसे बात कहता नहीं। रोकड़ से ले लेने में क्या हरज है? तनख्वाह मिलते ही जमा कर दूँगा।
कुल्सूम-खुदा के लिए कहीं यह गजब न करना। रोकड़ को काला साँप समझो। कहीं आज ही साहब रकम की जाँच करने लगे तो?
ताहिर-अजी नहीं, साहब को इतनी फुरसत कहाँ कि रोकड़ मिलाते रहें!
कुल्सूम-मैं अमानत की रकम छूने को न कहूँगी। ऐसा ही है, तो नसीमा का तौक उतारकर कहीं गिरो रख दो, और तो मेरे किए कुछ नहीं हो सकता।
ताहिर अली को दु:ख तो बहुत हुआ; पर करते क्या। नसीमा का तौक निकालते थे, और रोते थे। कुल्सूम उसे प्यार करती थी और फुसलाकर कहती थी, तुम्हें नया तौक बनवाने जा रहे हैं। नसीमा फूली न समाती थी कि मुझे नया तौक मिलेगा।
तौक माल में लिए हुए ताहिर अली बाहर निकले, और जगधर को अलग ले जाकर बोले-भई, इसे ले जाओ, कहीं गिरो रखकर अपना काम चलाओ। घर में रुपये नहीं हैं।
जगधर-उधार सौदा बेचना पाप है, पर करूँ क्या, नगद बेचने लगूँ, तो घूमता ही रह जाऊँ।
यह कहकर उसने सकुचाते हुए तौक ले लिया और पछताता हुआ चला गया। कोई दूसरा आदमी अपने ग्राहक को इतना दिक करके रुपये न वसूल करता। उसे लड़की पर दया आ ही जाती, जो मुस्कराकर कह रही थी, मेरा तौक कब बनाकर लाओगे? परंतु जगधर गृहस्थी के असह्य भार के कारण उससे कहीं असज्जन बनने पर मजबूर था, जितना वह वास्तव में था।
जगधर को गए आधा घंटा भी न गुजरा था कि बजरंगी त्योरियाँ बदले हुए आकर बोला-मुंशीजी, रुपये देने हों, तो दीजिए, नहीं तो कह दीजिए, बाबा, हमसे नहीं हो सकता; बस, हम सबर कर लें। समझ लेंगे कि एक गाय नहीं लगीं रोज-रोज दौड़ाते क्यों हैं?
ताहिर-बिरादर, जैसे इतने दिनों तक सब्र किया है, थोड़े दिन और करो। खुदा ने चाहा, तो अबकी तुम्हारी एक पाई भी न रहेगी।
बजरंगी-ऐसे वादे तो आप बीसों बार कर चुके हैं।
ताहिर-अबकी पक्का वादा करता हूँ।
बजरंगी-तो किस दिन हिसाब कीजिएगा?
ताहिर अली असमंजस में पड़ गए, कौन-सा दिन बतलाएँ। देनदारों को हिसाब के दिन का उतना ही भय होता है, जितना पापियों को। वे'दो-चार', 'बहुत जल्द', 'आज-कल में' आदि अनिश्चयात्मक शब्दों की आड़ लिया करते हैं। ऐसे वादे पूरे किए जाने के लिए नहीं, केवल पानेवालों को टालने के लिए किए जाते हैं। ताहिर अली स्वभाव से खरे आदमी थे। तकाजों से उन्हें बड़ा कष्ट होता था। वह तकाजों से उतना ही डरते थे, जितना शैतान से। उन्हें दूर से देखते ही उनके प्राण-पखेरू छटपटाने लगते थे। कई मिनट तक सोचते रहे, क्या जवाब दूँ, खर्च का यह हाल है, और तरक्की के लिए कहता हूँ, तो कोरा जवाब मिलता है। आखिरकार बोले-दिन कौन-सा बताऊँ, चार-छ: दिन में जब आ जाओगे, उसी दिन हिसाब हो जाएगा।

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